चरित्र बहुत हद तक आचरण का ही दूसरा नाम है। आप जैसे हैं वैसे ही आचरण करते हैं । यदि आप अच्छे नहीं हैं । तो कभी अच्छा आचरण नहीं कर सकते हैं। आप खुद से भी अच्छे कैसे बन सकते हैं? प्रयास के साथ विद्या नैतिक आचरण के अभ्यास के द्वारा यह संभव है। विहित आचरण क्या है, इसे अपने मन के अवयवों को द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता है। शास्त्रों से जान लेना होगा नैतिक आचरण के बारे में आपस्तंब धर्मसूत्र का निर्देश है-
क्रोध, हर्ष, लालच, वहम,अहंकार तथा शत्रुता का अभाव, सत्य बोलना, आहार का संयम, दूसरों के बुराइयों को प्रकट न करना, ईर्ष्या से मुक्ति, अच्छी चीजों में दूसरों के साथ सहभागिता, यज्ञ, सरलता, सौम्यता, शांति, आत्म संयम, सभी जीवों के प्रति मैत्री, क्रूरता का अभाव, संतोष- यह मानव जीवन की अवस्थाओं के लिए विहित आचार हैं। इनका ठीक-ठीक पालन करने से मनुष्य सार्वभौमिक रूप से कल्याणकारी हो जाता है।
यहां महत्वपूर्ण बात यह है कि इन नैतिक या विहित आचरणों के अनेक तत्व गीता के 16 वें अध्याय के प्रथम 3 श्लोकों में निर्देशित दैवी संपद के साथ एकरूप है। यहां विशेष रूप से देखने में आता है कि किस प्रकार आत्म-संयम तथा दूसरों के प्रति सम्मान का भाव या नैतिक आचारों में समाहित है।
परंतु यदि हमने पूर्ण मानवीय व्यक्तित्व तथा इसकी पूर्ण अवस्था का ध्यान रखने वाली पुरुषार्थों की ठोस व्यवस्था के प्रति सुदृढ़ प्रतिबद्धता विकसित नहीं की है, तो केवल नैतिक आचार जीवन के विविध कठिन परिस्थितियों का दबाव सहन करने में सक्षम नहीं होंगे। पुरुषार्थों की भारतीय व्यवस्था में इन चार का उल्लेख किया जाता है- धर्म,अर्थ, काम तथा मोक्ष। मनुष्य के मनोभाव को इस प्रकार प्रशिक्षित करना होगा कि उसे धर्म के द्वारा काम तथा धन की उपलब्धि हो और क्रमशः वह मोक्ष को ही धर्म का उद्देश्य समझे।
इस प्रकार की मानसिकता का विकास इस बात पर निर्भर करेगा कि हमने विहिता चारों के संदर्भ में अपना जीवन किस प्रकार व्यतीत किया है।
पुरुषार्थओं की सोच समझ रखने वाला व्यक्ति ही चरित्र निर्माण के उद्देश्य तथा तात्पर्य की धारणा कर सकता है। अन्य लोग इसका तात्पर्य अच्छे से नहीं समझते परंतु आत्म संतुष्टि की उपलब्धि अंतर से उठने वाली एक चिर कालीन चुनौती है । जिसे कोई भी विचार वान व्यक्ति कदापि टाल नहीं सकता है।
चरित्र आत्म संयम की एक ऐसी अर्जित गति है जो अपने प्रयास के द्वारा ही अपने भीतर से आरंभ होती है । सत्य, असत्य के सहज विचार, असत्य का त्याग और सत्य के प्रति दृढ़ लगाव के रूप में एक अथक परंतु सुनियोजित संघर्ष के द्वारा यह प्रक्रिया अपने ही भीतर चलती रहती है । एकाग्रता तथा अनासक्ति दोनों ही शक्तियों का एक साथ विकास करना आवश्यक है। विकास ही सभी महत्वपूर्ण उद्यमों में सफलता का वास्तविक रहस्य है । अपने कर्तव्यों के प्रति प्रेम के द्वारा हम इच्छाशक्ति का विकास कर सकते हैं।
जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में हमें जैसा आचरण करना चाहिए । यद्यपि इस विषय में हमें बहुत कुछ सीखना है , तथापि हमें जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ सकता है । उनके बारे में पहले से ही जान लेना संभव नहीं है। और किसी को भी इस विषय में चिंतित होने की भी आवश्यकता नहीं है। प्रत्येक अवसर या समय के लिए उचित आचार का निर्धारण नहीं किया जा सकता है। हमारे सद्भाव के बावजूद हमारे पूर्व नियोजित सदाचार कृत्रिम सिद्ध हो सकते हैं
वस्तुत सदाचार में सद्य: प्रस्फुटित पुष्प की सी एक मृदु सुगंध होती है। यह उस व्यक्ति के अंतर से सहज ही उठती रहती है जिसके बिना किसी बाहरी दबाव के स्वयं ही अपने चुने हुए जीवन मूल्यों के प्रति प्रेरित होकर प्रयास पूर्वक अपने को विकसित कर लिया है
बुद्धिमान व्यक्ति का सबसे विश्वस्त पथ प्रदर्शक उसके ही भीतर विद्यमान है । उसके बाद भी उसे जीवन भर विनयशील शिक्षार्थी बने रहकर, कहीं से भी आने वाले प्रामाणिक उपदेशों के प्रति अपने मन को खुला रखना चाहिए।